जहां से दिखती हैं चारों धामों की पर्वत श्रृंखलाएँ

प्रीती नेगी

देहरादून। जनमंच टुडे

 

उत्तराखंड को ऐसे ही देवभूमि नहीं कहा जाता, है, यहां के कण, कण में देवी देवताओं का वास है। देवभूमि में अनादिकाल से नारी शक्ति की पूजा की परंपरा रही है और नारी का सम्मान किया जाता है। देवभूमि में अनेक देवी,देवताओं के हजारों मंदिर हैं, जहां जहां वर्ष भर लाखों लोग दर्शन को आते हैं। इनमें से एक है, नई टिहरी के जौनपुर ब्लाक के सुरकुट पर्वत पर विराजमान माता सुरकंडा देवी का मंदिर। जहां वर्षभर माता के दर्शन को भक्तों का तांता लगा रहता है।
प्रकृति के गोद में बसे एशिया के सबसे बड़े झील टिहरी के जौनुपर के सुरकुट पर्वत पर घने जंगलों के बीच यह समुद्रतल से तकरीबन तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर मौजूद है। सुरकंडा देवी का मंदिर। सड़क मार्ग से कम से कम दो किमी की खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद माता के दर्शन होते है। मातारानी दर पर आए भक्तों की झोली भी    खुशियों से  भर देती है। यह मंदिर माता देवी दुर्गा के नौ रुपों को समर्पित है और 52 शक्ति पीठों में से एक पीठ है। मंदिर में मां काली की प्रतिमा विराजमान है। पौराणिक कथा के अनुसार जब राजा दक्ष ने कनखल में यज्ञ का आयोजन किया तो यज्ञ में भगवान शिव को निमंत्रण नहीं दिया। शिवजी के मना करने के बावजूद माता सती यज्ञ में शामिल होने पहुंच गईं। वहां राजा दक्ष ने सती और भगवान शिव का मेहमानों के सामने अपमान किया तो  वह शिव का अपमान सहन नहीं कर सकी जिसके बाद माता सती यज्ञ कुंड में कूद गईं। सती की यज्ञ कुड़ में कूदने की जानकारी भोलेनाथ को मिली। इसके बाद भगवान शिव रौद्र रूप में आ गए और यज्ञ स्थल पर पहुंच कर राजा दक्ष का सिर धड़ से अलग कर दिया और माता सती का शव कुंड से निकाल त्रिशूल में टांगकर आकाश में    वियोग मेंं भटकने  लगे। शिव के दुख के चलते सृष्टि में ठहराव सा आ गया। शिव की व्यथा को देखकर भगवान विष्णु  से रहा नही गया और चक्र से माता के मृत शरीर को खंडित करने का निर्णय लिया और उसके बाद माता के शरीर को  चक्र से 52 टुकड़ों में खंडित कर दिया। इस पर माता सती का सिर कटकर सुरकुट पर्वत पर गिरा। तभी से ये स्थान सुरकंडा देवी सिधपीठ के रूप में  प्रसिद्ध हुआ। केदारखण्ड   व स्कंद पुराण के अनुसार  जब राजा इंद्र का सारा राजपाट छीन गया था तो उन्होंने यहां  माता की  आराधना  की और अपना खोया हुआ साम्राज्य प्राप्त किया था।
पौराणिक  प्रचलित कथा के अनुसार चंबा जड़धार गाँव के युवक को यहाँ माता ने बूढ़ी महिला के रूप में साक्षात दर्शन दिए थे। तभी से जड़धार गाँव के ग्रामीण माता के मैती (मायके वाले) माने जाते हैं। यह भी मान्यता है कि दशकों पहले एक बूढ़ी औरत बुरांसखंडा से सुरकुंडा की ओर जा रही  थीं । थकान होने पर राह चलने वाले लोगों से उसने पर्वत तक पहुंचाने की मदद मांगी, लेकिन किसी ने उसकी मदद नही की। यही बात उसने एक युवक से दोहराई युवक ने महिला को अपनी कंडी में बिठाकर सुरकूट पर्वत तक पहुंचाया। जहाँ  बूढ़ी  औरत  ने युवक को साक्षात देवी रूप में प्रकट होकर दर्शन दिए और कहा तू मेरा मैती  यानी मायके वाला है। कहा जाता है तभी से जड़धार गाँव के ग्रामीणों को माता के मैती माना जाता है । जून माह में गंगा दशहरे पर सर्व प्रथम जड़धार गाँव के ग्रामीण ढोल-नगाड़ों के साथ माता सुरकंडा की पूजा अर्चना के लिए आते हैं।
सुरकंडा देवी मंदिर की एक विशेषता यह  है कि भक्तों को प्रसाद के रूप में दी जाने वाली रौंसली की पत्तियां औषधीय गुणों से भरपूर होती हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार इन पत्तियों से घर में सुख समृद्धि आती है। क्षेत्र में इसे देववृक्ष माना  जाता है। इसीलिए इस पेड़ की लकड़ी को इमारती या दूसरे व्यावसायिक उपयोग में नहीं लाया जाता है। यहां से उत्तर में बद्रीनाथ, केदारनाथ, तुंगनाथ, गौरीशंकर, नीलकंठ आदि कई पर्वत श्रृखलाएं दिखाई देती हैं और दक्षिण में देहरादून, तीर्थनगरी  का मनमोहक दृश्य दिखाई देता है।  यह  ततरकंडा यह  कपाआट एक मात्र मन्दिर है जहां से चारो धामों की पर्वव शृंखलाएं दिखाई देती है, जो कि अपने आप मे अद्भभत  है। मन्दिर के कपाट साल भर खुले रहते हैं।
सड़क मार्ग  ही मां सुरकंडा मंदिर पहुंचने का एक मात्र जरिया है। यहां पहुचने के लिए वाहनों की सुविधा है। देहरादून,मसूरी होते हुए यहाँ पहुंच सकते है। इसके बाद दो किमी पैदल खड़ी चढ़ाई की दूरी दूरी तय कर मंदिर पहुंचा जाता है।  ऋषिकेेेश से  चंबा होते हुए 82 किमी की दूरी तय कर  यहां पहुंचा जा सकता है।
यहां यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाओं की सुविधा है। वायु मार्ग यहां से सबसे नजदीकी हवाई अड्डा जौलीग्राट है। रेल मार्ग ऋषिकेश है।

प्रस्तुति

प्रीति नेगी, सम्पादक जनमंच टुडे

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *