पालनहारी धरती पर संकट

देहरादून। जनन्नी जन्मभूमिsच स्वर्गादपि गरीयसी, अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। अर्थात तुम्हारी माता ने जन्म देकर, दूध पिलाकर हर प्रकार से सुख देकर जिस प्रकार तुम्हें पाला-पोसा है उसी प्रकार मैं तुम्हारी धरती मां अपने फल-फूल, अन्न, जल, वायु आदि से तुम्हारे सारे मानव जगत को सदियों से पालती-पोसती आ रही हूं। वर्तमान दौर में पृथ्वी दिवस को एक पर्व की तरह दुनिया भर में मनाया जाता है। यह हर साल एक अरब से अधिक लोग इसे मनाते है और एक दिन के दिनचर्या को पर्यावरण के कार्य के लिए समर्पित किया जाता है। धरती को पूजकर पृथ्वी दिवस मनाने की परंपरा हज़ारों सालों से चली आ रही है । धार्मिक अनुष्ठान करके पृथ्वी की आराधना होती आ रही है। हमारा देश धरती को माँ मानकर पृथ्वी, जंगल, पहाड़, पशु, पक्षियों की हजारों साल से पूजा पाठ और आराधना करते आ रहे हैं। पृथ्वी दिवस मनाने की परम्परा की शुरुआत 1970 से हुई। पर्यावरण को बचाने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करना इसका प्रमुख कारण है। आज सुविधावादी जीवन शैली के कारण पृथ्वी विनाश की दिशा में लगातार आगे बढ़ रही है।
मानव गतिविधियों के चलते धरती पर संकट छा रहा है।
बात मूलभूत तत्व या संसाधनों की उपलब्धता तक सीमित नहीं है। आधुनिकीकरण के इस दौर में जब प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुन्ध दोहन हो रहा है तो ये तत्व भी खतरे में पड़ गए हैं। अनेक शहर पानी की कमी से परेशान हैं। आज वह परम्परा खत्म गई है जब इंसान स्वयं को कटवाकर भी वृक्षों को कटने से रोकता था। पेड़ पौधों को अपने बच्चों की तरह देखभाल करता था, उनपर एक खरोंच तक नहीं आने देता था। वनभूमि का एक टुकड़ा भी किसी को हथियाने नहीं देता था। हम धरती को माँ का दर्जा देते हैं लेकिन खुद ही धरती के खात्मे में जुटे हुए हैं। इंसान यह नहीं समझ रहा कि अगर धरती पर संकट आएगा तो मानव जाति पर भी संकट आएगा। इसलिए हर व्यक्ति की जिम्मेदारी बनती है कि वह प्रकृति व जीवजंतुओं की रक्षा के लिए कुछ ना कुछ जरूर करे, तभी धरती दिवस के मायने सार्थक होगा।
हर साल नई थीम के साथ पृथ्वी दिवस मनाया जाता है। पर इस बार एक ओर जहां कोरोना महामारी का दंश पूरी दुनिया झेल रही है। तो वहीं लाॅक डाउन पर्यावरण के लिए संजीवनी बनकर सामने आया है। नदियां प्रदुषण रहित नजर आ रही है तो वहीं वन पेड पौधे भी ताजी हवा का घर बने हुए है।
आमतौर पर अप्रैल महीने में उत्तराखंड के जंगल आग से दहकते हैं लेकिन इन दिनों लॉकडाउन की वजह से जंगल नहीं सुलग रहे हैं। ऐसे में मानवीय हस्तक्षेप और स्वार्थपूर्ति का इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि अप्रैल-मई-जून के महीने में जंगल धू-धू कर जलते हैं, लेकिन कोरोना के खौफ से इंसान घरों में कैद हैं तो जंगल आबाद हैं। उत्तराखंड में फायर सीजन में हर साल कई हेक्टेयर वन भूमि आग की चपेट में आ जाती है। वन महकमा भी आग पर काबू पाने में नाकाफी साबित होता है। ज्यादातर मामलों में इंसान ही जंगलों को सुलगा देता है। दावानल से पेड़-पौधे जीवजंतु तो जलते ही हैं, उसके साथ ही बहुमूल्य वन संपदा, जड़ी-बूटी आग की भेंट चढ़ जाती हैं। कई प्रजाति तो विलुप्त हो जाती है। दावानल से तापमान में बढ़ोत्तरी होती है। इससे ग्लोबल वॉर्मिंग का खतरा बढ़ता है। वायु प्रदूषण जैसी समस्याओं से दो चार होना पड़ता है। जैव विविधता पर असर पड़ता है। वहीं, इस बार लॉकडाउन की वजह से लोग अपने घरों पर ही हैं। लोग जंगलों की ओर कम रुख कर रहे है। तो जंगल बिल्कुल सुरक्षित हैं।
प्रीती नेगी
सम्पादक, जनमंच टुडे