दानवराज पुलोम की पुत्री ने यहां की थी मां भगवती की तपस्या

जनमंच टुडे/ देहरादून।
देवभूमि उत्तराखण्ड अनन्त काल से देवी, देवताओं की वासस्थली होंने के साथ ही ऋषियों, मुनियों की तपस्थली रही है, और देवभूमि उत्तराखंड के कण, कण में देवी, देवता विराजते हैं। और हजारों आस्था और श्रद्धा के प्रतीक सिद्धपीठ, मन्दिर स्थित है। इन्हीं में से एक है, पूर्वी नयार नदी के तट पर स्थित सिद्धपीठ ज्वाल्पा देवी । यहां माता भगवती ज्वाला के रुप में विराजमान हैं। मान्यता है कि माता भगवती यहां अखंड ज्योति के रूप में हर समय मौजूद रहती हैं। । शारदीय और चैत्रीय नवरात्रों में माता के दर्शन को यहां भक्तों की अथाह भीड़ उमड़ती है। यह सिद्ध पीठ पौड़ी जिले के कफोलस्यूं पट्टी के पूर्व नयार के तट पर स्थित है । अविवाहित कन्याएं सुयोग्य वर की कामना लेकर माता के दर पर आती हैं। मंदिर का निर्माण 1892 में अणेथ गांव के दत्तराम अंथवाल और उनके पुत्र बूथाराम अंथवाल ने की थी। पौराणिक कथा के अनुसार इस स्थान पर दानवराज पुलोम की पुत्री शचि ने भगवान इंद्र को वर के रूप में पाने के लिए मां भगवती की कठोर तपस्या की थी। शचि की तपस्या से मां भगवती इतनी प्रसन्न हुईं कि उन्होंने शची को दीप्त ज्वालेश्वरी के रूप में दर्शन दिया और उसकी मनोकामना पूर्ण की। माता रानी के ज्वाला रूप में दर्शन देने के कारण इस स्थान का नाम ज्वालपा पड़ा। केदारखण्ड के मानस खण्ड में भी इस स्थान का जिक्र किया गया है। मन्दिर में देवी पार्वती के दीप्तिमान ज्वाला के रूप में प्रकट होने के प्रतीक स्वरूप अखंड दीपक निरंतर प्रज्ज्वलित रहती है। इस प्रथा को यथावत रखने के लिए प्राचीन काल में निकटवर्ती मवालस्यूं, कफोलस्यूं, खातस्यूं, रिंगवाडस्यूं, घुड़दौड़स्यूं और गुराडस्यूं पट्टियों के गांवों से सरसों को एकत्रित कर तेल की व्यवस्था की जाती थी। 18वीं शताब्दी में गढ़वाल के राजा प्रद्युम्न शाह ने मंदिर को 11.82 एकड़ सिंचित भूमि दान की थी, ताकि अखंड दीपक के लिए तेल की व्यवस्था के लिए खेत में सरसों का उत्पादन किया जा सके। आदि गुरु शंकराचार्य ने इस सिद्धपीठ में माता की पूजा की थी, और माता ने दर्शन दिए थे। वहीं प्रचलित कथा के अनुसार प्राचीन काल में इसे अमकोटी के नाम में जाना जाता था। कफोलस्यूं, खातस्यूं, मवालस्यूं, रिंगवाड़स्यूं, घुड़दौड़स्यूं, गुराड़स्यूं पट्टियों के गांवों से आने वाले ग्रामीण यहां रुकते थे। कहा जाता है कि एक बार यहां एक कफोला बिष्ट नमक लेकर आ रहा था। थकने पर वह यहां पर सुस्ताने के लिए रुका। वह नमक से भरे कट्टे को किनारे पर रख आराम करने लगा। आराम करने के बाद जब उसने नमक का कट्टा उठाना चाहा तो नमक का कट्टा टस से मस नहीं हुआ। इसके बाद जब उसने कट्टा खोल कर देखा तो उसमें मां की मूर्ति (पिंडी) थी। उसने माता की मूर्ति को कट्टे से निकाला तो कट्टा हल्का हो गया। उसने पिंडी को उसी जगह पर रखा और चला गया। एक दिन अणेथ गांव के दत्त राम के सपने में मां ज्वाल्पा ने दर्शन दिए और जहां पर पिंडी रखी थी उस स्थान पर मंदिर बनाने का आदेश दिया। उसके बाद उन्होंने पुत्र के साथ मिलकर मन्दिर का निर्माण किया। यहां पूजा पाठ सदियों से अंथवाल ब्राह्मण करते हैं। मंदिर में यज्ञ कुंड भी स्थित है। माता के मंदिर के आसपास हनुमान मन्दिर, काल भैरव मंदिर, माता काली का मन्दिर और शिवालय भी हैं। यहां पर एक संस्कृत महाविद्यालय भी है, जिसमे सैकडों विद्यार्थी संस्कृत की शिक्षा लेते हैं। श्रद्धालुओं के ठहरने के लिए धर्मशाला भी उपलब्ध है। पहले यहां बलि प्रथा प्रचलित थी, लेकिन अब यह कुप्रथा पूरी तरह बन हो गई है। मंदिर पौड़ी मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर और कोटद्वार से लगभग 72 किलोमीटर की दूरी पर है।