सुरकंडा: जहां गिरा था माता सती का सिर

देहरादून। देवभूमि में अनादिकाल से नारी शक्ति की पूजा की परंपरा रही है और नारी सम्मान यहां की सर्वोच्च परंपरा है। देवभूमि में अनेक देवी,देवताओं के सैकड़ों मन्दिर विराजमान हैं जो सदियों से लोगों के आस्था के केंद्र हैं और वर्ष भर लाखों श्रद्धालु दर्शन को आते हैं। इनमें से एक है। नई टिहरी के जौनपुर ब्लाक के सुरकुट पर्वत पर विराजमान माता सुरकंडा देवी का मंदिर। जहां वर्षभर भक्तों का तांता लगा रहता है। प्रकृति के गोद में बसे जौनुपर के सुरकुट पर्वत पर घने जंगलों के बीच समुद्रतल से तकरीबन तीन हजार मीटर की ऊंचाई पर सुरकंडा देवी का मंदिर हैं, जहां माता रानी विराजमान हैं। सड़क मार्ग से कम से कम दो किमी की खड़ी चढ़ाई चढ़ने के बाद माता के दर्शन होते हैं। यह मंदिर माता दुर्गा के नौ रुपों को समर्पित है और 52 शक्ति पीठों में से एक पीठ है। मंदिर में मां काली की प्रतिमा विराजमान है। पौराणिक कथा के अनुसार जब राजा दक्ष ने कनखल में यज्ञ का आयोजन किया तो भगवान शिव को निमंत्रण नहीं दिया। शिव के मना करने के बावजूद माता सती यज्ञ में शामिल होने चली गईं। वहां राजा दक्ष ने शिव का सती और मेहमानों के सामने अपमान किया तो सती शिव का अपमान सहन नहीं कर सकी और यज्ञ कुंड में कूद गईं। सती की यज्ञ कुड़ में कूदने की जानकारी भोलेनाथ को मिली तो वह रौद्र रूप में आ गए और यज्ञ स्थल पहुंच कर राजा दक्ष का सिर धड़ से अलग कर दिया और माता सती का शव कुंड से निकाल त्रिशूल में टांगकर आकाश में वियोग मेंं भटकने लगे। शिव के दुख के चलते सृष्टि में ठहराव सा आ गया। शिव की व्यथा को देखकर भगवान विष्णु से रहा नहीं गया और चक्र से माता के मृत शरीर को खंडित करने का निर्णय लिया और माता के शरीर को 52 टुकड़ों में खंडित कर दिया। इस पर माता सती का सिर कटकर सुरकुट पर्वत पर गिरा। तभी से ये स्थान सुरकंडा देवी सिधपीठ के रूप में प्रसिद्ध हुआ। केदारखण्ड व स्कंद पुराण के अनुसार जब राजा इंद्र का सारा राजपाट छीन गया था तो उन्होंने यहां माता की आराधना की और अपना खोया हुआ साम्राज्य प्राप्त किया था। पौराणिक प्रचलित कथा के अनुसार चंबा जड़धार गाँव के युवक को यहाँ माता ने बूढ़ी महिला के रूप में साक्षात दर्शन दिए थे। यह भी मान्यता है कि दशकों पहले एक बूढ़ी औरत बुरांसखंडा से सुरकुंडा की ओर जा रही थीं । थकान होने पर राह चलने वाले लोगों से उसने पर्वत तक पहुंचाने की मदद मांगी, लेकिन किसी ने उसकी मदद नहीं की। यही बात उसने एक युवक से कही तो युवक ने महिला को कंडी में बिठाकर सुरकूट पर्वत तक पहुंचाया। जहाँ बूढ़ी औरत ने युवक को साक्षात देवी रूप में प्रकट होकर दर्शन दिए और कहा तू मेरा मैती यानी मायके वाला है। कहा जाता है तभी से जड़धार गाँव के ग्रामीणों को माता के मैती माना जाता है । जून माह में गंगा दशहरे पर सर्व प्रथम जड़धार गाँव के ग्रामीण ढोल-नगाड़ों के साथ माता सुरकंडा की पूजा अर्चना के लिए आते हैं। सुरकंडा देवी मंदिर की एक विशेषता यह है कि भक्तों को प्रसाद के रूप में दी जाने वाली रौंसली की पत्तियां औषधीय गुणों से भरपूर होती हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार इन पत्तियों से घर में सुख समृद्धि आती है। क्षेत्र में इसे देववृक्ष माना जाता है। इसीलिए इस पेड़ की लकड़ी को इमारती या दूसरे व्यावसायिक उपयोग में नहीं लाया जाता है। यहां से उत्तर में बद्रीनाथ, केदारनाथ, तुंगनाथ, गौरीशंकर, नीलकंठ आदि कई पर्वत श्रृखलाएं दिखाई देती हैं और दक्षिण में देहरादून, हरिद्वार का मनमोहक दृश्य दिखाई देता है। यह एक मात्र ऐसा मन्दिर है, जहां से चार धाम की पर्वत श्रृंखलायें दिखाई देती हैं, जो कि अपने आप मेंं अद्भभत है। मन्दिर के कपाट साल भर खुले रहते हैं। नवराात्रि में यहां श्रद्धालुओं की अपार भीड़ जुटती है।सड़क मार्ग ही मां सुरकंडा मंदिर पहुंचने का एक मात्र जरिया है। देहरादून,मसूरी होते हुए यहाँ पहुंच सकते हैं। इसके बाद दो किमी पैदल खड़ी चढ़ाई की दूरी तय कर मंदिर पहुंचा जाता है। यहां यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशालाओं की सुविधा है।
- प्रीति नेगी।